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भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement) की 81वीं वर्षगाँठ मनाई गई

भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement) की 81वीं वर्षगाँठ मनाई गई। ऐसा माना जाता है कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का आखिरी सबसे बड़ा आंदोलन था, जिसमें सभी भारतवासियों ने एक साथ बड़े स्तर पर भाग लिया था। कई जगह समानांतर सरकारें भी बनाई गई, स्वतंत्रता सेनानी भूमिगत होकर भी लड़े। यह आंदोलन ऐसे समय में प्रारंभ किया गया जब द्वितीय विश्वयुद्ध जारी था। औपनिवेशिक देशों के नागरिक स्वतंत्रता के प्रति जागरूक हो रहे थे और कई देशों में साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के खिलाफ आंदोलन तेज़ होते जा रहे थे।

 

आंदोलन के बारे में
14 जुलाई, 1942 को वर्धा में कॉन्ग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित किया एवं इसकी सार्वजनिक घोषणा से पहले 1 अगस्त को इलाहाबाद (प्रयागराज ) में तिलक दिवस मनाया गया। 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस की बैठक बंबई (मुंबई) के ग्वालिया टैंक मैदान में हुई और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के प्रस्ताव को मंज़ूरी मिली। इस प्रस्ताव में यह घोषणा की गई था कि भारत में ब्रिटि शासन की तत्काल समाप्ति भारत में स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र की स्थापना के लिये अत्यंत आवश्यक हो गई है।
भारत छोड़ो आंदोलन कोअगस्त क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है। इस आंदोलन का लक्षय भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करना था । यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काकोरी कांड के ठीक सह साल बाद 9 अगस्त, 1942 को गांधीजी के आह्वान पर पूरे देश में एक साथ आरंभ हुआ।

ज्ञातव्य है कि ‘भारत छोडों’ का नारा युसुफ मेहर अली ने दिया था।

आंदोलन की पृष्ठभूमि
दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो चुकी थी और इसमें मित्र राष्ट्र हारने लगे थे। एक समय यह भी निश्चित माना जाने लगा कि जापान भारत पर हमला करेगा। मित्र देश, अमेरिका, रूसचीन ब्रिटेन पर लगातार दबाव डाल रहे थे कि वह भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को मार्च 1942 में भारत भेजा। भारतीयों की मांग पूर्ण स्वराज थी, जबकि ब्रिटिश सरकार भारत को पूर्ण स्वराज नहीं देना चाहती थी । वह भारत की सुरक्षा अपने हाथों में ही रखना चाहती थी और साथ ही गवर्नर जनरल के वीटो के अधिकार को भी बनाए रखने के पक्ष में थी । भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद ‘भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस समिति की बैठक 8 अगस्त, 1942 को बंबई में हुई। इसमें यह निर्णय लिया गया कि भारत अपनी सुरक्षा स्वयं करेगा और साम्राज्यवाद तथा फासीवाद का विरोध करता रहेगा।
इसके पश्चात् कान्ग्रेस भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव लाई जिसमें कहा गया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत अपने सभी संसाधनों के साथ फासीवादी और साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध लड़ रहे देशों की ओर से युद्ध में शामिल हो जाएगा। इस प्रस्ताव में देश की स्वतंत्रता के लिये अहिंसा पर आधारित जन आंदोलन की शुरुआत को अनुमोदन प्रदान किया गया।

आंदोलन के दौरान गतिविधियाँ
भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित होने के बाद ग्वालिया टैंक मैदान में गांधीजी जी ने कहा कि,
‘एक छोटा सा मंत्र है जो मैं आपको देता हूँ। इसे आप अपने ह्रदय में अंकित कर लें और अपनी हर सांस में उसे 66 अभिव्यक्त करें। यह मंत्र है- ” करो या मरो” । अपने इस प्रयास में हम या तो स्वतंत्रता प्राप्त करेंगे या फिर जान दे देंगे ।”
इस तरह भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ एवं ‘करो या मरो’ भारतीयों का नारा बन गया।

 

ब्रिटिश सरकार द्वारा रात को 12 बजे ऑपरेशन ज़ीरो ऑवर (Operation Zero Hour) के तहत सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गए और उन्हें देश के अलग-अलग भागों में जेल में डाल दिया गया। गांधीजी को पुणे के आगा खां पैलेस में रखा गया तो अन्य सदस्यों को अहमदनगर दुर्ग में रखा गया। साथ ही कॉन्ग्रेस को गैर- संवैधानिक संस्था घोषित कर इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके विरोध में देश के प्रत्येक भाग में हड़तालों और प्रदर्शनों का आयोजन किया गया।
प्रमुख नेताओं के जेल चले जाने बाद नेतृत्व के अभाव में लोगों के बीच से नेतृत्व उभरा। अरुणा आसफ अली ने 9 अगस्त, 1942 को ग्वालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराकर आंदोलन को गति दी तो जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन इत्यादि नेताओं ने भूमिगत रहकर आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। उषा मेहता ने अपने साथियों के साथ बंबईसे कॉन्ग्रेस रेडियो का प्रसारण किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा पूरे देश में गोलीबारी, लाठीचार्ज और गिरफ्तारियाँ की गई।
ब्रिटिश सरकार की हिंसक कार्रवाई की प्रतिक्रिया में लोगों का गुस्सा भी हिंसक गतिविधियों में बदल गया था। लोगों ने सरकारी संपत्तियों पर हमला किया, रेलवे पटरियों को उखाड़ दिया, डाक व तार व्यवस्था को अस्त- व्यस्त कर दिया और वे सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराने लगे। बिहार के पटना में सचिवालय पर तिरंगा फहराने के दौरान सात युवा छात्र शहीद हो गए। अनेक स्थानों पर पुलिस और जनता के बीच हिंसक संघर्ष भी हुए। ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन से संबंधित समाचारों को प्रकाशित करने पर रोक लगा दी। अनेक समाचार पत्रों ने इन प्रतिबंधों को मानने की बजाय अख़बार बंद कर दिया।

देश के कई भाग जैसे- संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में बलिया, बंगाल में तामलूक, महाराष्ट्र में सतारा, कर्नाटक में धारवाड़ और उड़ीसा में तलचरबालासोर में लोगों द्वारा अस्थायी सरकार की स्थापना की गई। पहली अस्थायी सरकार बलिया में वित्तू पाण्डेय के नेतृत्व में बनी थी । सतारा में विद्रोह का नेतृत्व वाई. वी. चौहान और पाटिल ने किया था।
वर्ष 1942 के अंत तक लगभग 60,000 लोगों को जेल में डाल दिया गया और कई हज़ार लोग मारे गए जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल थे। बंगाल के तामलूक में 73 वर्षीय मतंगिनी हाजरा, असम के गोहपुर में 13 वर्षीय कनकलता बरुआ, बिहार के पटना में सात युवा छात्र व सैकड़ों लोग प्रदर्शन के दौरान गोली लगने से मारे गए। जय प्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली, एस. एम. जोशी, राम मनोहर लोहिया और कई अन्य नेताओं ने लगभग पूरे युद्ध काल के दौरान क्रांतिकारी गतिविधियों का आयोजन किया।
युद्ध के वर्ष लोगों के लिये बेहद संघर्ष के दिन थे। इसी दौरान गरीबी के कारण बंगाल में गंभीर अकाल पड़ा जिसमें लगभग तीस लाख लोग मारे गए। सरकार ने भूख से मर रहे लोगों को राहत पहुँचाने में बहुत कम रूचि दिखाई।

महत्त्व

यह आंदोलन स्वतंत्रता के अंतिम चरण को इंगित करता है। इसने गाँव से लेकर शहर तक ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी। इससे भारतीय जनता के अंदर आत्मविश्वास बढ़ा और समानांतर सरकारों के गठन से जनता काफी उत्साहित हुई। इसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और जनता ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया। जो राष्ट्रीय आंदोलन के परिपक्व चरण को सूचित करता है। इस आंदोलन के दौरान पहली बार राजाओं को जनता की संप्रभुता स्वीकार करने को कहा गया।
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